कभी झाडू में था ओडिशा का एकछत्र राज, अब बस्तर दे रहा मात

रायपुर : अकेला बस्तर मात दे रहा है उस ओडिशा को, जिसका एकछत्र राज चलता था झाड़ू-बुहारी के बाजार में। बस्तर के जंगलों में प्राकृतिक रूप से तैयार होने वाली घास की तीन प्रजातियों से बनी यह सामग्री अब तेजी से बाजार और घरों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही है। मौसम का खूब साथ मिल रहा है बस्तर को। अनुकूल परिस्थितियां हैं कुसल घास और छिंद घास के लिए।

बढ़वार इस बार जैसी देखी जा रही है, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि झाड़ू-बुहारी बनाने वाली आबादी की आय में जोरदार बढ़ोतरी हो सकती है। यह इसलिए क्योंकि सी मार्ट और घरेलू बाजार से जोरदार मांग निकल रही है।

बारहमासी फूल घास

टाइगर ग्रास, एशियन ब्रूम ग्रास और बैम्बू ग्रास ये तीन नाम है। इकलौती ऐसी घास, जो पूरे साल तैयार होती रहती है लेकिन कटाई केवल जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में ही की जाती है। हरा रहने पर पत्तियां, पशु चारा के रूप में उपयोग की जाती हैं। सूखने के बाद तना, जलावन के काम आता है। फैल रही है यह प्रजाति। इसलिए फूल झाड़ू के बाजार में बस्तर की धाक बन रही है।

बढ़ा बस्तर का दबदबा

पूरे साल आय का जरिया बनती है छिंद घास। जिस तरह इसका संरक्षण बस्तर कर रहा है, उसका ही प्रतिफल है कि छिंद झाड़ू के लिए ओडिशा पर निर्भरता लगभग खत्म होने की स्थिति में है। साल के वनों में प्राकृतिक रूप से तैयार होने वाली घास की यह प्रजाति छिंद झाड़ू के रूप में हर घर में पहुंच बना चुकी है। परिपक्व होने के बाद काटी जाती है और सुखाई जाती है। सूखने के बाद चीरा लगाया जाता है। इस तरह तैयार होती है झाड़ू के लिए छिंद घास।

कुसल ग्रास याने कांटा बहरी

उत्तर बस्तर और कांकेर के घने जंगलों के खुले किनारों में तैयार होती है कुसल घास अनुकूल परिस्थितियां रहीं, तो एक मीटर से भी अधिक ऊंचाई हासिल कर लेती है घास की यह प्रजाति। पुष्पन के पहले तक हरी-भरी पत्तियों वाली यह प्रजाति सूखने के बाद भूरी हो जाती है और फूल वाली जगह पर कांटे लग जाते हैं। यह स्थिति पहचान है, कटाई की। कांटे तेज होते हैं, इसलिए कमर से पैरों तक प्लास्टिक क्लाथ पहनकर काटना होता है। कांटों की वजह से ही कांटा बुहारी के नाम से पहचाना जाता है।

पानी बांस से खरहरा

बस्तर के समृद्ध वनों में वैसे तो हर जगह देसी या पानी बांस  की प्रजाति मिलती है, लेकिन नारायणपुर, दरभा और कोलिंग जैसे क्षेत्र में मिलने वाली प्रजाति को खरहरा के लिए बेहद उपयुक्त माना जाता है। बांस शिल्प बनाने वाले कारीगरों की ही मेहनत का नतीजा है कि आंगन और सड़क बुहारने के लिए खरहरा इससे ही बनाए जाने लगे हैं। इसके अलावा पशुओं से सुरक्षा के लिए बाड़ और दीवार भी बनते हैं। सींक बनाने के बाद बनाई जाने वाली खरहरा का सर्वाधिक उपयोग गोशालाओं में होता है।

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