हिन्दू विवाह में क्यों अनिवार्य माना जाता है सिंदूर दान? जानिए इसका पौराणिक और ज्योतिषीय महत्व

हिंदू धर्म में विवाह एक विस्तृत कार्यक्रम होता है, जिसमें कई दिनों तक विभिन्न प्रकार के रस्में निभाई जाती है। शादी के रीति-रिवाज अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई दिनों तक चलते हैं। लेकिन कुछ रस्मों के बिना हिन्दू विवाह संपन्न नहीं माना जाता है। इन्हीं में से एक है सिंदूर दान। इसमें वर द्वारा वधू की मांग में सिंदूर लगाया जाता है। उसके बाद से सिंदूर उस वधू के सुहाग की निशानी बन जाती है। इसके बिना शादी पूर्ण नहीं मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार, सिंदूर लगाने की परंपरा रामायण काल से चली आ रही है। धर्म ग्रंथों में माता सीता और पार्वती द्वारा सिंदूर लगाने की कथा वर्णित है।

क्या है इसका महत्व?

विवाह के दौरान वर वधु की मांग में सिंदूर भरता है, जिसे सिंदूर दान कहा जाता है। हिन्दू धर्म में सिंदूर दान की परंपरा सदियों से ऐसे ही चली आ रही है। विवाह के दौरान वर, वधू की मांग भरकर सिंदूर दान की परंपरा को निभाता है। इसके बाद से कन्या रोजाना अपनी मांग में सिंदूर लगाती है। इसे अखंड सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि सिंदूर लगाने से वैवाहिक जीवन में खुशियां बनी रहती है और जन्म-जन्मांतर का साथ बना रहता है। आइये जानते हैं सिंदूर दान करना क्यों जरूरी माना जाता है।

क्यों माना जाता है जरूरी?

शास्त्रों के अनुसार, सिंदूरदान करने के बाद ही विवाह पूरा माना जाता है, क्योंंकि सिंदूर को अखंड सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। इसका संबंध शरीर में मौजूद चक्रों से भी होता है। योग के अनुसार हमारे शरीर में 7 चक्र होते हैं और उनका नियंत्रण सिर के उस हिस्से से होता है जिसमें सिंदूर भरा जाता है। मांग के पीछे हिस्से में सूर्य विराजित होते हैं। ऐसे में मांग में सिंदूर भरने से सूर्य भी मजबूत होता है। इसके साथ ही मेष राशि का स्थान माथे पर माना जाता है और इस राशि का स्वामी मंगल ग्रह है। मंगल का रंग लाल सिंदूरी होता है। इसलिए इसे शुभ और सौभाग्य को बढ़ानेवाला माना जाता है।

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