नई दिल्ली : राहुल गांधी इन दिनों विदेशों में ‘मोहब्बत की दुकान’ लगा रहे हैं। इन कार्यक्रमों में वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘भगवान से भी ज्यादा जानकार’ होने और देश की संस्थाओं पर सरकार का कब्जा होने जैसे आरोप लगा रहे हैं। भाजपा उनके इन बयानों पर हमलावर है और उन पर देश की छवि खराब करने का आरोप लगा रही है। उसके दर्जनों बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री राहुल के मामले पर बयानबाजी कर चुके हैं।
इन नेताओं की आक्रामक प्रतिक्रिया बता रही है कि भाजपा राहुल के बयानों को लेकर काफी गंभीर है और वह बिना चूके उन सवालों का पूरा जवाब देना चाह रही है, जिसे राहुल अपने कार्यक्रमों में उठाने की कोशिश कर रहे हैं। बड़ा प्रश्न है कि कल तक राहुल गांधी को ‘पप्पू’ बताने वाली भाजपा आज उनके बयानों को लेकर इतनी गंभीर क्यों हो गई है? राहुल के बयानों पर भाजपा की आक्रामकता का कारण क्या है?
मोहब्बत की दुकान की पंच लाइन
मोहब्बत की दुकान (Mohabbat Ki Dukan) का नारा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान सबसे पहले सुनाई पड़ा था। माना गया था कि इसके जरिए कांग्रेस उसी अल्पसंख्यक मुसलमान समुदाय को साधने की रणनीति बना रही थी, जो कभी उसका सबसे बड़ा समर्थक वोटर वर्ग हुआ करता था। क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद यह वर्ग अलग-अलग दलों में बंट गया, लेकिन दुबारा खड़ी होने की पुरजोर कोशिश में जुटी कांग्रेस अब पूरी शिद्दत के साथ इस वोट बैंक को दुबारा अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान मुसलमान मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए चला गया यह दांव कांग्रेस के लिए काफी कारगर भी साबित हुआ। कर्नाटक में पार्टी को जबरदस्त जीत मिली और इस जीत के पीछे मुसलमान समुदाय के द्वारा उसे किया गया समर्थन बड़ा कारण बना। कांग्रेस अब इसी दांव को लोकसभा चुनाव में भी आजमाना चाहती है। संभवतः यही कारण है कि विपक्षी एकता के सुनाई दे रहे स्वरों के बीच राहुल गांधी एक बार फिर मोहब्बत की दुकान लगाने निकल पड़े हैं।
आंकड़ों में छुपा है आक्रामकता का राज
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 37.36 प्रतिशत वोटों के साथ 303 सीटों पर सफलता मिली थी, जबकि इसी चुनाव में कांग्रेस को 19.49 प्रतिशत वोटों के साथ 52 सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा और कांग्रेस के वोटों में अंतर लगभग 18 फीसदी वोटों का था। यह अंतर उस समय था जब कांग्रेस सबसे कमजोर पिच पर थी, तो पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक कर भाजपा अपनी लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर थी।
केंद्र की मुश्किल कांग्रेस की मजबूती
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हाल के दिनों में कई ऐसे बदलाव हुए हैं जिसके कारण कांग्रेस एक बार फिर मजबूत होती दिखाई पड़ रही है। वहीं भाजपा कई अलग-अलग मोर्चों पर फंसती दिखाई दे रही है। महंगाई, बेरोजगारी, दस साल का एंटी इनकमबेंसी फैक्टर, महिला खिलाड़ियों के सम्मान सहित कई ऐसे मुद्दे हैं जो भाजपा को परेशान कर रहे हैं और ये लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित कर सकते हैं। अंतिम दिनों में चुनाव की कैसी परिस्थितियां बनती हैं, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस समय जो मोटी-मोटी तस्वीर बन रही है, उससे केंद्र को परेशानी होती दिखाई पड़ रही है।
यहां कांग्रेस मजबूत
कांग्रेस के लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं है तो बहुत मुश्किल भी नहीं है। इसका बड़ा कारण है कि ये लोकसभा सीटें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों में हैं। कांग्रेस इन राज्यों में न केवल मजबूत स्थिति में है, बल्कि वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दुबारा वापसी करने की मजबूत दावेदारी भी पेश कर रही है। वहीं, भाजपा शासित मध्य प्रदेश में एक बार फिर वह चुनाव में बढ़त बना सकती है। यदि इन समीकरणों के बीच राहुल गांधी का दांव चला तो इसका लोकसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है।
गैर-भाजपाई वोटरों का एकजुट होना परेशानी का बड़ा कारण
कर्नाटक और उसके पहले हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में यह बात सामने आई है कि अब गैर भाजपाई वोटर एकजुट होकर सरकार परिवर्तन के लिए वोट कर रहे हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस विपक्ष के अन्य दलों को अपने साथ लेकर चुनाव में उतरी तो और इसका परिणाम 2014 और 2019 से बहुत अलग हो सकता है। राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान इस दिशा की ओर बढ़ाया जा रहा एक मजबूत कदम साबित हो सकता है।
मुसलमानों के साथ दलितों-सिखों को साधने में जुटे राहुल
जानकारों के मुताबिक कांग्रेस जानती है कि वह केवल मुसलमान मतदाताओं के बल पर भाजपा को 2024 की लड़ाई में बड़ी चुनौती नहीं पेश कर सकती। यही कारण है कि राहुल गांधी ने अमेरिका में मुसलमानों के साथ-साथ दलितों और सिखों का मुद्दा भी उठाना शुरू कर दिया है। दलित और सिख मतदाता भी कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं। कर्नाटक चुनाव परिणाम ने यह भी बता दिया है कि कांग्रेस का मल्लिकार्जुन खरगे पर खेला गया दांव अपना असर दिखा रहा है और दलित मतदाता उसकी ओर आ रहे हैं।