नईदिल्ली। सैनिक… ये सिर्फ एक जॉब नहीं है. ये एक पदवी है, एक जिम्मेदारी है जो हर वर्दी धारी पूरी शिद्दत से निभाता है. हर सैनिक की केवल एक कोशिश होती है… शायद एक ही तमन्ना भी कि एक बार… बस एक बार उसे भी सीने पर एक चक्र पहनने का मौका मिल जाए. अक्सर सैनिकों की शहादत हो जाती है, लेकिन वह चक्र जीते जी उन्हें नहीं मिल पाता और वह इस आस को दिल में समाए, इस दुनिया से रुखसत हो जाते हैं. उनके अदम्य साहस के लिए उनको दिया जाने वाला वह एक चक्र फिर उनके परिजनों को दिया जाता है.
आपने कभी सोचा है कि एक चक्र हाथ में लेकर, राष्ट्रपति के सामने खड़ा परिवार उस वक्त क्या सोचता होगा जब वहां पर बैठे हर इंसान और करोड़ों लोगों के सामने अनाउंसर उनके अपनों के सर्वोच्च बलिदान की गाथा बता रहा होता है. वो कितनी तकलीफ से गुजरते होंगे… उस एक घड़ी में उनके कानों में अपनों की शौर्य कहानी गूंज रही होती है और आंखें इस बात से भर आती हैं कि काश… काश उस शख्स के साथ कुछ पल और मिल जाते. फिर जैसे ही उनकी वीरता को सम्मानित करते हुए वह चक्र परिवार के किसी सदस्य के हाथ जाता है तो ऐसा लगता है कि मानो वह अपना तो नहीं हैं लेकिन उनकी वीरता का ये प्रतिबिम्ब उनके हाथों में तो पास है… बस… ये वही पल होता है जब उस चक्र में जान आ जाती है.
अगर चक्र बोल पाता तो क्या कहता?
वह महज एक सम्मान भर नहीं रह जाता, वह देश पर कुर्बान होने वाले की पहचान बनकर,उसके अपने के लिए उसके आखिरी शब्दों जितना जरूरी हो जाता है. मानो चक्र के जरिए वह शहीद ही कह रहा हो कि देखो मां मौत सामने थी मगर तेरा बेटा डरा नहीं. लेकिन वह चक्र एक पत्नी से क्या कहता होगा? उस चक्र को देखकर एक पत्नी क्या सोचती होगी? अगर चक्र बोल पाता तो कहता कि प्रिय… तुम्हारे साथ सात जन्मों तक जीने का वादा किया था मैंने… लेकिन ये जिन्दगी वतन के नाम थी. शायद इसलिए एक पत्नी के लिए उसके शहीद पति की वह आखिरी अमानत और भी ज्यादा खास हो होती है.
दर्द सहने की वह पराकाष्ठा थी…
दुनिया के सबसे ऊंचे सैन्यीकृत क्षेत्र सियाचिन में दूसरों को बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वाले कैप्टन अंशुमान सिंह को बीते दिनों मरणोपरांत कीर्ति चक्र दिया गया. पूरे देश ने उनकी पत्नी स्मृति और उनकी मां को सम्मान लेते देखा. कलेजा मुंह को आ गया उनकी आंखें देखकर… उनके आंसू जो आंखों के कोनों पर कहीं रुक गए थे, या फिर ये दर्द सहने की वह पराकाष्ठा थी जहां पहुंचकर इंसान के चेहरे पर केवल एक अजीब सा मौन होता है और आंखों में चुभने वाली खामोशी. वह आंखें न बोलकर भी बहुत कुछ बोल जाती हैं. खैर… उस दिन के बाद शहीद कैप्टन के परिवार ने देश के सामने अपने दुख को साझा किया… दुख बेटे के जाने का तो था ही, बेटे की आखिरी निशानी, उनको दिए गए कीर्ति चक्र को न छू पाने का भी था.
शहीद केवल अपने माता-पिता का नहीं होता
वह कीर्ति चक्र जो उनके मुताबिक उनकी बहू स्मृति अपने साथ लेकर अपने घर गुरदासपुर चली गईं. शहीद के पिता ने मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि उनकी इस बात को लोग पैसे से जोड़कर देख रहे हैं. ये बात गलत है. उन्होंने कहा कि हम एक बार भी बेटे की आखिरी निशानी, उसको दिया गया सम्मान अपने हाथों में भी नहीं ले पाए. बहू ने उस सम्मान को साथ लिया और चली गईं. बेटा तो गया ही बहू ने भी हमें छोड़ दिया… वेब सीरीज पंचायत देखकर एक बात का तो पता लग ही गया है कि शहीद केवल अपने माता-पिता का नहीं होता… वह पूरे देश का होता है और जब देश के एक शहीद बेटे के माता-पिता इस तरह अपना दुख साझा करते हैं तो निश्चित हर इंसान की भावना आहत हो जाती है.
कब शुरू हुआ सिलसिला?
शहीद अंशुमान के पिता ने कहा कि पूरा देश मेरे बेटे के साथ खड़ा है. हमें हमारे देश की सरकार से कोई शिकायत नहीं है. उनके शब्दों में ये पूरा सिलसिला उस दिन से शुरू हुआ जिस दिन कैप्टन सिंह की मां और पत्नी को राष्ट्रपति भवन में रिहर्सल के लिए बुलाया गया था. उन्होंने कहा कि मां ने सम्मान को पकड़ा था जो बहू को शायद अच्छा नहीं लगा. हमसे सीओ साहब ने कहा कि आप ऐसा न करें. पिता ने आगे कहा कि इसके बाद हमने पत्नी से कहा कि वह केवल हाथ लगाएं और चक्र को बहू को ही पकड़ने दें. उन्होंने वीडियो का हवाला देते हुए कहा कि आप वीडियो में भी देख सकते हैं कि पत्नी ने उसमें खाली हाथ लगाया, बहू ने ही सम्मान को पकड़ा था. उन्होंने कहा कि हम तो यहां तक तैयार थे कि हम दोनों सम्मान लेने नहीं जाएंगे.
‘चक्र की दो रेप्लिका होनी चाहिए’
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए पिता ने कहा कि हम चाहते थे जो मूर्ति लग रही है लखनऊ में उसमें बहादुर बेटे के सीने पर इस चक्र को लगाया जाता और उसके बाद हम इस सम्मान को वापस कर देते, लेकिन उस बारे में भी सीओ साहब ने कुछ खास नहीं कहा. जब सारे अवॉर्डी और पैरेंट्स डिनर कर रहे थे, तब भी चक्र बहू के ही हाथ में था. पिता ने आरोप लगाते हुए कहा कि एक बार भी बहू ने ये नहीं कहा कि पापा आप भी चक्र ले लीजिए. अगर वह हमारे हाथ में आता तो एक क्षण के लिए ही सही लेकिन हम भावविभोर जरूर हो जाते, लेकिन हम उस अहसास से भी वंचित रह गए. उन्होंने कहा कि एक आशा है कि चक्र की दो रेप्लिका देनी चाहिए, ताकी एक सम्मान अगर पत्नी ले जाती हैं तो दूसरा माता-पिता के साथ रहे.
सबसे चौंकाने वाला आरोप
इस सभी बातों में सबसे चौंकाने वाला आरोप एटीएम ब्लॉक करवाने और पोस्टपेड सिम को प्रीपेड करवाने का था. अंशुमान की मां ने कहा कि एटीएम वह इस्तेमाल करती थीं. वहीं, प्रोस्टपेड सिम अंशुमान के नाम पर था, जिसे परिवार के सदस्य इस्तेमाल करते थे. लेकिन बहू ने उसमें से परिवार के सदस्यों को हटा दिया. इस बारे में पता करने पर कंपनी ने बताया कि फोन करके इस सिम को बंद करवाया गया. वहीं, एटीएम कार्ड अंशुमान के बैंक अकाउंट का था, जो उन्होंने खुद अपनी मां को दिया था. इतने सारे आरोपों के बीच जाहिर है की दो गुट बंट ही जाएंगे.
‘जिसकी जैसी सोच है वह वैसा ही सोचेगा’
लेकिन हमारा काम गुट बांटना नहीं है. सच्चाई बताना है. पूरे देश को इस मामले में कुछ खल रहा था तो वह थी शहीद कैप्टन सिंह की पत्नी स्मृति की चुप्पी. एक प्रतिष्ठित अखबार से बातचीत में स्मृति ने कहा कि जिसकी जैसी सोच, वह वैसा ही कहेगा… उन्होंने बताया कि उनको इस मामले पर कुछ जानकारी नहीं है. वह फिलहाल बाहर हैं और इस विषय में तभी कुछ कह पाएंगी जब उनको सारी बातें पता चलेंगी. फिलहाल स्मृति के माता-पिता ने भी इस बारे में कुछ कहने से मना कर दिया है और स्मृति ने केवल यही कहा है कि जिसकी जैसी सोच है वह वैसा ही सोचेगा. दोनों तरफ से आ रही प्रतिक्रियाओं से किसी भी निष्कर्ष में पहुंचना आसान नहीं… और एक शहीद के परिवार के बारे में ऐसी बातों के उठने में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना नैतिकता के मापदंडों पर भी सही नहीं.