भारतीय आध्यात्मिक चिंतन परंपरा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विशेष महत्व बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों में भी इस पर विस्तार से चिंतन किया गया है। समय-समय अनेक संतों व विद्वानों ने विस्तार से अलग-अलग रूप में इसकी व्याख्या की है। ऐसे में आचार्य चाणक्य के विचार भी इस संबंध में उल्लेखनीय है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को लेकर आचार्य चाणक्य ने ये बातें कही हैं।
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः
आचार्य चाणक्य ने सबसे पहले इस श्लोक में कहा है कि राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा भी धार्मिक आचरण करती है। राजा के पापी होने पर प्रजा भी पाप में लग जाती है। राजा उदासीन रहता है, तो प्रजा भी उदासीन रहने लगती है, क्योंकि प्रजा वैसा ही आचरण करती है, जैसा राजा करता है।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मैं धर्म से रहित अधर्मी व्यक्ति को जीवित रहने पर भी मरे हुए के समान समझता हूं, जबकि धर्मयुक्त मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है, इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्
आचार्य चाणक्य ने आगे कहा है कि जिस मनुष्य के पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों में से एक चीज भी नहीं है, उसका जन्म बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों के समान निरर्थक होता है।