जगन्नाथपुरी : हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वतीजी महाभाग ब्रह्म की अपरोक्षता की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि जिस प्रकार शास्त्र सम्मत शुद्धि- अशुद्धि के प्रकार का परित्याग कर मन: कल्पित शुद्धि से स्वर्ग आदि का सम्पादन और चित्त का शोधन सर्वथा असम्भव है , उसी प्रकार वस्तु शोधन की शास्त्रीय सरणी के विरुद्ध प्रकार से विशुद्ध अद्वैत का सम्पादन और चित्त का शोधन सर्वथा असम्भव है। श्रुति स्वयं ही मुक्त स्वर से माया की तमोरूपता और आवरकता तथा नाम मात्रता को स्वीकार कर उसका भेदन किये बिना हृत्पद्म परिच्छिन्न चिदात्मा की ब्रह्म रूपता और अद्वितीयता की असम्भवता का प्रतिपादन करती है।
आत्म रूप से ब्रह्म की अपरोक्षता और ब्रह्म रूप से आत्मा की विभुता तथा सर्वात्म रूपता को स्वीकार किये बिना परोक्ष ब्रह्म की चिद्रूपता , विशुद्धता और अद्वितीयता का प्रतिपादन विशुद्ध भावुकता ही मान्य है। जो स्वयं प्रकाश जगत् का प्रकाशक भान (ज्ञान) नित्य ही प्रकाशित होता है , वही सर्वसाक्षी सर्वात्मा और विशुद्ध है। वह प्रज्ञान घन स्वरूप है और सब भूतों की प्रतिष्ठा है। वह विद्या का विषय एकमात्र अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म मैं हूँ , ऐसा अचञ्चल निश्चय प्राप्त होने पर मुनि कृत कृत्य होता है। निस्सन्देह जो सच्चिदानन्द स्वरूप सर्व अधिष्ठान सनातन परम ब्रह्म है , वह मन और वाणी का अविषय है। अभिप्राय यह है कि ब्रह्मात्म तत्त्व अज्ञान नाश में विनियुक्त तत्त्व मस्यादि महा वाक्य जन्य वृत्ति का विषय ( वृत्ति व्याप्य ) होने पर भी स्व प्रकाश होने के कारण वृत्ति प्रतिफलित चिदाभास का भास्य ( फल व्याप्य ) नहीं है।
जिस प्रकार नभ सूर्य के दर्शनके लिये मेघ मण्डल का अपनोदन ही पर्याप्त है , ना कि दर्पण आदित्य से उसका उद्भासन ; उसी प्रकार स्व प्रकाश आत्मा की आत्म अनुरूप समुपलब्धि के लिये आविद्यक आवरण भङ्ग ही पर्याप्त है, ना कि चित्त गत चिदाभास से चिदात्मा का उद्भासन। वस्तु स्थिति यह है कि जो ब्रह्म निर्विकल्प, निर्मल, आदि और अन्त रहित अर्थात् कालकृत परिच्छेद शून्य तथा अनन्त अर्थात् देश और बस्तुकृत परिच्छेद शून्य एवम् हेतु दृष्टान्त रहित प्रमाण परिच्छेद शून्य त्रिपुटी से भी अतीत अतएव अप्रमेय है , विद्वान् उसके विज्ञान से विमुक्त होता है। त्रिपुरातापिन्य उपनिषत् में उल्लेखित वचनों के अनुसार तात्पर्य्य निर्णय में दक्ष स्वामी श्रीविद्यारण्य महाभाग ने स्व प्रकाश चिदात्म तत्त्व के वृत्ति व्याप्यत्व का समादर करते हुये भी उसके फल व्याप्यत्व को अस्वीकार किया है।
साक्षी स्व प्रकाश है , फिर भी अस्वप्रकाश घट आदि के तुल्य व्याप्त होता है। शास्त्रकारों ने प्रत्यगात्मा की फल व्याप्ति मात्र का निषेध किया है। घट बुद्धि ( बुद्धि वृत्ति ) और बुद्धिस्थ ( बुद्धि वृत्तिस्थ ) चिदाभास दोनों से व्याप्त होता है। उन दोनों में बुद्धि वृत्ति से घट विषयक अज्ञान का नाश होता है तथा चिदाभास से घट का स्फुरण होता है। ब्रह्म में अज्ञान नाश के लिये वृत्ति व्याप्ति की अपेक्षा है। परन्तु बुद्धि गत चिदाभास की विद्यमानता रहने पर भी स्व प्रकाश होने के कारण उसमें आभास का उपयोग नहीं है।