रायपुर : छत्तीसगढ़ में दिवाली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। दशहरा के बाद से ही लोग इस महापर्व की तैयारी में जुट जाते हैं। घरों की साफ-सफाई, रंग-रोगन, नए वस्त्रों और बच्चों के लिए पटाखों की खरीददारी—यह सब दिवाली का उत्साह बढ़ाते हैं। दिवाली का यह पांच दिवसीय त्योहार धनतेरस से शुरू होकर भाई दूज तक चलता है, जिसमें हर दिन की अपनी खास महत्ता है।
धनतेरस के दिन भगवान धनवंतरी की पूजा होती है, जिन्हें स्वास्थ्य और धन का देवता माना जाता है। इस दिन लोग नई झाड़ू और धनिया खरीदते हैं, जिससे माना जाता है कि मां लक्ष्मी की कृपा से घर में समृद्धि आती है।
इसके बाद आता है नरक चौदस, जिसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण द्वारा राक्षस नरकासुर का वध करने की याद में दीये जलाए जाते हैं और 14 दीपक जलाकर यमदेव से परिवार की कुशलता की कामना की जाती है।
दिवाली के दिन भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की खुशी में पूरे शहर में दीप जलाए जाते हैं, और हर घर में मां लक्ष्मी व गणेशजी की पूजा कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।
गोवर्धन पूजा के दिन भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा होती है। इस दिन गौ माता के लिए विशेष भोजन तैयार किया जाता है, और घरों में अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
अंत में भाई दूज के दिन बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और उनसे रक्षा का वचन लेती हैं। यह भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है।
छत्तीसगढ़ में दिवाली के इस अवसर पर विशेष रूप से मातर पर्व का आयोजन होता है, जहां यादव समाज के लोग गाय की पूजा करते हैं और पारंपरिक नृत्य-गान करते हैं। गांव के गौठान में सजधज कर इकट्ठे होकर सांहड़ा देव और अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। इस दौरान पारंपरिक “लाठी झोकना” की परंपरा भी निभाई जाती है।
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में दीपों का यह महापर्व, परंपराओं के संरक्षण और समाज की एकता का प्रतीक है, जो यहां की संस्कृति की जीवंतता को दर्शाता है।