किन पूजा स्थलों को लेकर विवाद?
पहले विवादों को देखते हैं, जिसका दायरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. यह विवाद अयोध्या में चलता रहता है, जहां अब राम मंदिर है. इसका कारण यह है कि बाबरी मस्जिद श्री राम की जन्मभूमि पर बनाई गई थी, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साक्ष्य दिए हैं. हिंदू पक्ष के दावे पर अदालत ने दम पाया और मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया. मंदिर बना, उद्घाटन हुआ, अयोध्या का विवाद सुलझा, लेकिन दूसरे स्थानों पर मतभेद गहराने लगे.
अब अयोध्या झांकी है, लेकिन काशी और मथुरा बाकी हैं. काशी में ज्ञानवापी मस्जिद-श्रृंगार गौरी मंदिर पर बहस चल रही है, जबकि मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद-श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर बहस चल रही है. हालांकि, अयोध्या, मथुरा और काशी की पुरानी तिकड़ी के अलावा हर दिन नए मस्जिदों और इस्लामिक धर्मस्थलों की चर्चा भी होने लगी है.
मध्य प्रदेश के धार जिले का भोजशाला परिसर भी चर्चा में आया कि क्या यह कमाल मौलाना मस्जिद है या सरस्वती का मंदिर? साथ ही, उत्तर प्रदेश के संभल की जामा मस्जिद का प्रांगण क्या हरिहर मंदिर था? वहीं, बदायूं की जामा मस्जिद का नीलकंठ मंदिर होने का दावाअब राजस्थान के अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को लेकर महादेव मंदिर होने का दावा है.
मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में इस सिलिसिले में बार-बार याचिका लगाई है कि इस तरह के दावे और फिर सर्वे की अनुमति देना धार्मिक सौहार्द को बिगाड़ने वाला है. वे वर्शिप एक्ट के प्लेसेज की भी प्रशंसा करते हैं, जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई होगी.
क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट?
केंद्र में पीवी नरसिम्हा रॉव की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार ने 1991 में यह कानून बनाया, जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था. भारत की संसद ने सोचा कि कहीं यह बहस पूरे देश में न फैल जाए. अगस्त 1991 में, तब के गृहमंत्री शंकररॉव चवन ने लोकसभा में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट—पूजा स्थल कानून—पेश किया. 10 सितंबर 1991 को लोकसभा से भी पारित हो गया, दो दिन बाद राज्यसभा से भी पारित हो गया.
इस कानून में सात खंड थे जो 15 अगस्त 1947 को किसी भी पूजास्थल के धार्मिक रूप को सर्वोच्च मानते थे और उसे बदल नहीं सकते थे. सरल शब्दों में, अगर कोई जगह मंदिर था, मस्जिद थी या गिरिजाघर था, तो वह मंदिर रहेगा.
हालाँकि, इस कानून ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को अपने दायरे से बाहर रखा था क्योंकि यह मामला तब अदालतों में विचाराधीन था और इसमें यह भी कहा गया था कि कानून की अवहेलना कर किसी धार्मिक स्थान का स्वरूप बदलने की कोशिश करने पर एक से तीन साल की जेल और जुर्माना हो सकता था. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की संवैधानिकता पर ही सवाल उठाया है.
SC के सामने क्या याचिकाएं लगाई गईं?
वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने पहली याचिका, अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत सरकार, 2020 में अदालत में दाखिल की थी. विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमह्ययम स्वामी ने भी ऐसी ही याचिकाएं दाखिल की हैं.
इन सभी लोगों ने कानून के सेक्शन 2, 3 और 4 को असंवैधानिक बताया है क्योंकि वे हिन्दूओं और कुछ अन्य धर्मों के लोगों के मौलिक अधिकारों को हनन करते हैं, और इसकी वैधता को सही नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि ये कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता.
मुख्य याचिकाकर्ता, वकील अश्विनी कुमार, कहते हैं कि ये कानून हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख धर्मों को मानने वालों के अधिकारों का हनन करता है. उसकी दूसरी बहस है कि हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि इस कानून की वजह से विदेशी आक्रांताओं ने उनके धार्मिक स्थानों को बर्बाद कर दिया है.
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले लोगों में वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय भी हैं, जबकि जमीयत उलमा-ए-हिंद, सीपीएम और राजद नेता मनोज झा भी हैं, जो सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को रद्द करने की लड़ाई लड़ रहे हैं. 2022 में जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इसके समर्थन में याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने इसे भारत की सांप्रदायिक सौहार्द और धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए महत्वपूर्ण बताया.