मुंबई : रवीना टंडन इन दिनों अपनी अभिनय यात्रा की दूसरी पारी खेल रही हैं। पहली पारी जब वह सिनेमा की पिच पर खेलने उतरी थीं तो ये उन दिनों की बात हुआ करती थी जब उन्हें ‘टिप टिप बरसा पानी’ और ‘तू चीज बड़ी है मस्त मस्त’ जैसे गानों में ठुमके लगाने के लिए ही फिल्मों में लिया जाता था।
हालांकि, उस दौर में भी रवीना ने ‘दमन’ और ‘शूल’ जैसी फिल्मों में दिखाया कि वह अभिनय भी कमाल का कर सकती हैं। ‘दमन’ के लिए तो उन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी जीता। तीन साल पहले रवीना ने ओटीटी पर अपनी दूसरी पारी खेलनी शुरू की है। और, सिर्फ इन तीन साल में रवीना ने दिखाया है कि अगर उन्हें सही किरदार मिलें तो वह अपने दौर की उन तमाम अभिनेत्रियों से आज भी इक्कीस है जो इन दिनों ओटीटी पर अपनी दूसरी पारी खेल रही हैं।
सिर्फ एक बंदी काफी है
फिल्म ‘पटना शुक्ला’ अपनी चंद लेखकीय और निर्देशकीय खामियों के बावजूद अगर एक दर्शनीय फिल्म और सामाजिक सिनेमा बन पाती है तो उसमें फिल्म की कहानी, इसकी पृष्ठभूमि और इसकी मुख्य कलाकार रवीना टंडन का अभिनय सबसे अहम है। ये फिल्म कुछ कुछ उसी पृष्ठभूमि पर है जिस पर हालिया रिलीज फिल्म ‘भक्षक’ बनी। खान सितारों का भी ये दूसरा दौर चल रहा है। आमिर खान ‘लापता लेडीज’ बना रहे हैं। शाहरुख खान ने ‘भक्षक’ बनाई। और, सलमान खान ने हालांकि अपनी भांजी को लेकर ‘फर्रे’ बनाई लेकिन आमिर और शाहरुख के सामाजिक सिनेमा को आगे बढ़ाया है सलमान के भाई अरबाज खान ने अपनी इस नई फिल्म ‘पटना शुक्ला’ में। फिल्म का शीर्षक इसकी मुख्य कलाकार के किरदार के लोकप्रिय होने से मिला नाम है। फिल्म में इस किरदार का नाम है तन्वी शुक्ला।
घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं है
तन्वी शुक्ला को लोग ‘पटना शुक्ला’ कैसे बुलाने लगते हैं? भले फिल्म इस नाटकीय परिवर्तन को असरदार तरीके से दिखाने से चूक गई हो लेकिन तन्वी शुक्ला की कहानी अपने आप में असरदार है। वह पेशे से वकील है। अदालत परिसर में उसका अपना बस्ता है। जांघिये के लिए मिले कपड़े से आधा मीटर कपड़े की बेईमानी कर लेने वाले दर्जी के खिलाफ मुकदमा जीतते दिखाकर फिल्म ये स्थापित करती है कि तन्वी के पास आने वाले मामले मामूली हैं। अदालत का जज और खुद उसका पति भी उसे मामूली वकील समझता है। पति तो अपने सहकर्मियों और उनकी पत्नियों के सामने कहता भी है, ‘ये एफिडेविट (हलफनामा) अच्छा बना लेती हैं।’ घर की मुर्गी दाल बराबर वाली मानसिकता का ये पति भी हालांकि बाद में बदलता है और तमाम मुश्किल हालात में अपनी पत्नी की लड़ाई में उसका साथ देने का फैसला करता है।
मां, बेटी, पत्नी और वकील…
फिल्म ‘पटना शुक्ला’ की कहानी विहार विश्वविद्यालय में चल रही धांधली का खुलासा करती है। शुरू में लगता है कि ये उत्तर पुस्तिकाएं बदलने का मामला है लेकिन फिर पता चलता है कि सीसीटीवी लगे स्ट्रॉन्ग रूम के ‘ब्लाइन्ड स्पॉट’ पर बैठा शख्स कैसे लोगों की मार्कशीट ही बदल देता है। मामला खुल चुका है। लेकिन, अदालत सबूत मांगती है। जिस युवती का मुकदमा तन्वी लड़ रही है, वह एक रिक्शावाले की बेटी है। वह वादा करती है कि दबाव पड़ने पर वह टूटेगी नहीं। तन्वी शुक्ला खुद तनकर खड़ी रहने वाली महिला है। वह खाना भी अच्छा बनाती है। उसके बनाए लड्डुओं की तारीफ जज भी करते हैं। बेटे का टिफिन छूट जाए तो वह स्कूल बस का पीछा करके टिफिन भी दे आती है। लेकिन, उसकी वकालत का इम्तिहान अभी बाकी है। और, जब इस इम्तिहान में उसके अव्वल नंबर आने का नंबर आता है तो फिर एक खुलासा होता है। इस खुलासे की परिणीति के बाद इस फिल्म का सीक्वल बनने की गुंजाइश भी फिल्म बनाने वाले छोड़ देते हैं।
कुछ भूला, कुछ याद किया..
निर्देशक विवेक बुड़ाकोटी की फिल्म ‘पटना शुक्ला’ देखते समय कई हालिया रिलीज और कई पुरानी फिल्मों की याद आपको आती रह सकती है। ‘जॉली एलएलबी’ के जज सौरभ शुक्ला आपको याद आ सकते हैं। ‘फर्रे’ की चंद घटनाएं जहन में आ सकती हैं और भी दृश्य आपकी याददाश्त मे कुलबुला सकते हैं। लेकिन, मुझे ये फिल्म देखते समय बार बार याद आती रही मनोज बाजपेयी और रवीना टंडन की फिल्म ‘शूल’। उस फिल्म में मनोज के किरदार को सबने याद रखा और रवीना के किरदार को भूल गए। लेकिन, रवीना ने इस फिल्म के जरिये इस बार मनोज की फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ के बराबर की लकीर खींची हैं। रवीना की ये फिल्म इन दोनों फिल्मों की याद दिलाती है। तन्वी बिहार की बेटी है। एक ऐसे राज्य में वह वकालत करने निकली है, जिसके सिस्टम को घुन लग चुका है। विवेक बुड़ाकोटी ने पूरी कोशिश की है कि यह किरदार परदे पर कुछ यूं पेश किया जाए कि मध्यमवर्गीय परिवार की बेटियां अपने शरीर के सबसे अहम हिस्से, अपनी रीढ़, को सीधा रखना सीख सकें। दबाव में तन्वी झुकती नहीं है। कद्दावर नेता की वह सुनती नहीं है।