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फिल्म समीक्षा : आतंकवाद से शुरू हुई फराज की यह कहानी इंसानियत पर जाकर खत्म होती

मुंबई : हंसल मेहता अपनी मुखरता और उदारवादी विचारधारा के लिए जाने जाते हैं। उन्‍होंने हमेशा से फिल्में बनाने के लिए उन विषयों का चयन किया है, जो कहीं न कहीं समाज का जरूरी मुद्दा तो होते ही हैं, साथ ही प्रासंगिक भी। इस बार ‘फराज’ के जरिए उन्होंने पड़ोसी देश पर हुए आतंकी हमले की सच्ची कहानी पर फिल्म बुनी है, मगर आतंकवाद से शुरू हुई Faraaz की यह कहानी इंसानियत पर जाकर खत्म होती है।

‘फराज़’ की कहानी

एक जुलाई 2016 की वह सुहानी शाम एक भयानक खूनी रात में बदल गई थी, जब पड़ोसी देश बांग्लादेश की राजधानी ढाका के आर्टिसन कैफे पर बंदूकों और ग्रेनेडों से लैस पांच युवा आतंकवादियों ने धावा बोल दिया था। इस आतंकी हमले में आतंकियों ने निर्मम तरीके से 22 लोगों की जान ले ली थी, जिनमें एक भारतीय महिला भी शामिल थी। पढ़ा-लिखा अंग्रेजी बोलने वाला निबरस (Aditya Rawal) इस छलावे में जी रहा है कि इस्लाम के मुताबिक, काफिरों को मारकर उसे और उसके साथियों को जन्नत नसीब होगी। दूसरी ओर बंधक बना फराज (Zahan Kapoor) बंदूक की नोक के डर के बावजूद इस्लामिक कट्टरता पर सवाल उठाता है।
निबरस जब उससे सवाल पूछता है, आखिर तू चाहता क्या है, तो वह जवाब देता है- ‘तुम जैसों से अपने इस्लाम को वापिस चाहता हूं।’ आतंकी फराज को मुसलमान होने के कारण बख्श देना चाहते हैं और उसे वहां से अपनी जान बचाकर चले जाने का विकल्प भी देते हैं, मगर फराज अपनी भारतीय हिंदू महिला मित्र और मुस्लिम महिला मित्र को छोड़कर जाने के लिए राजी नहीं होता। अपनी जान बचाकर भागने के बाजय वह उन बेरहम आतंकवादियों का बेखौफ होकर सामना करता है। वह लगातार इस्लाम के सच्चे मायनों और मकसद पर आतंकवादियों से जिरह करता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उसे भी चींटी की तरह मसला जा सकता है। वह आखिर तक इंसानियत का दामन नहीं छोड़ता और उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ती है अपनी जान गंवाकर।

‘फराज़’ का रिव्‍यू

निर्देशक के रूप में हंसल मेहता उस भयानक रात को रीक्रिएट करने में कामयाब रहे हैं। फिल्म शुरू से ही आपको बांधने में कामयाब रहती है, क्योंकि हंसल बिना समय गंवाए दस मिनट में मूल कहानी पर आ जाते हैं। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, सहिष्‍णुता बनाम असहिष्‍णुता और धर्म बनाम कट्टरता की बहस को आगे बढ़ाती है। क्लाइमेक्स में इंसानियत का कुर्बानी वाला रंग देखकर राहत मिलती है। दूसरी आतंकी घटनाओं की तरह यह सुरक्षा एजेंसी के किसी अफसर को हीरो के रूप में चित्रित नहीं करती, बल्कि एक आम लड़के के शौर्य को दर्शाती है।
पुलिस कमिशनर के किरदार के जरिए फिल्‍म में जहां हल्‍के-फुल्‍के पल भी पैदा किए गए हैं, वहीं मां के रूप में जूही बब्बर बेचैनी और दुख के साथ-साथ अपने रुतबे की धौंस जमाती नजर आती है। हंसल मेहता इस्लाम को लेकर दो विपरीत विचारधाराओं पर बहस शुरू करते हैं। एक, जो जि‍हाद के नाम पर जान लेने में यकीन करते हैं और दूसरे वो जो हिंसा को गलत मानते हैं। इसे वे अपने स्क्रीनप्ले के रूप में मजबूती से उजागर नहीं कर पाए हैं।

अंत में निखरता है फराज़ का शौर्य

फिल्म का टाइटल फराज़ हैं, मगर फराज़ का शौर्य अंत में निखरता है। उसकी बैकस्टोरी पर थोड़ा और काम होना चाहिए था। भावनात्मक रूप से भी फिल्म उतनी झकझोर नहीं पाती, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि फिल्म की नीयत अच्छी और प्रासंगिक है। हां, लेखन की अपनी सीमाएं हैं, मगर तकनीकी पक्ष की बात करें, तो फिल्म की सिनेमैटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर दमदार है।

याद रह जाते हैं दमदार संवाद

अभिनय के मामले में आदित्य रावल बीस साबित होते हैं। इस्लाम के नाम पर किसी भी हद तक जाने वाले युवा आतंकी को आदित्य खूबी से निभा ले जाते हैं। शशि कपूर के ग्रैंड सन जहान कपूर अपने अभिनय से उम्मीद पैदा करते हैं। फराज़ की मां की भूमिका में जूही बब्बर एक समर्थ अभिनेत्री के रूप में अपना परिचय देती हैं। आमिर अली, सचिन लालवानी, जतिन पारिक जैसे कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं के मुताबिक अभिनय किया है।

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