भगवान परशुराम का फरसा : हजारों सालों से रखे फरसे में आज तक नहीं लगी जंग, यहां फरसे की परिधि में और क्या,क्या? जानिए पूरी कहानी…

रायपुर। भगवान परशुराम की कथा सबको पता ही होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि मौजूदा झारखंड के गुमला जिले में भगवान परशुराम ने भगवान शिव की 1000 वर्षों तक कठोर तपस्या की थी? इस तीर्थ को टांगीनाथ धाम के नाम से जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि यहाँ भगवान परशुराम का फरसा गड़ा हुआ है।

सबसे सोचनीय बात यह कि यहां खुले में हजारों सालों से रखे हुए फरसे में जंग नहीं लगी है, जबकि सभी जानते हैं कि लोहे में ​पानी लगने पर जंग लग जाती है और वह कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है. यह तीर्थ गुमला के बीहड़ जंगलों में स्थित है. भगवान परशुराम का फरसा यहीं जमीन में आधा गड़ा हुआ है।

नहीं लगता फरसे पर जंग
कहा जाता है कि झारखंड बांग्ला से 150 किमी दूर घने जंगल में तांगीनाथ धाम इलाका नक्सल प्रभावित है. स्थानीय भाषा में फरसा को तांगी कहते हैं, इसलिए इस स्थान का नाम तांगीनाथ धाम पड़ा. यह फरसा यहां हजारों सालों से बिना किसी देखभाल के गड़ा हुआ है. खुले में हजारों सालों से रखे हुए फरसे में जंग नहीं लगी है।

आखिर क्यों नहीं लगती इस फरसे में जंग?
कई वैज्ञानिकों ने इस फरसे पर शोध किया है, लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाये हैं कि आखिर फरसे में जंग क्यों नहीं लगता है।.फरसे का ऊपरी हिस्सा ही जमीन से ऊपर है, जिसकी ऊंचाई लगभग 5 फिट के आसपास है. 1984 में इसके जड़ की खुदाई 15 फिट तक की गई, लेकिन इस फरसे का दूसरा छोर नहीं मिला. फरसे की कार्बन डेटिंग करने के लिए इसके एक टुकड़े की जरूरत थी. इसके लिए पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिकों ने एक स्थानीय लुहार को बुलवाया और इसका ऊपरी हिस्सा में से 1 इंच कटवाया. उस टुकड़े को काटते ही वह लुहार मुँह से खून की उल्टी करता हुआ मर गया।

धीरे धीरे इस क्षेत्र के आसपास के सभी लुहार बीमार पड़के मरने लगे. यह घटना देख कर वैज्ञानिकों के होश उड़ गए. बाद में लुहारों ने बहुत मन्नत मांगा और बाबा परशुराम से क्षमा मांगा तब इस अजीब महामारी को रोका जा सका, जो केवल लुहारों को हो रही थी।

आज भी इस तीर्थ क्षेत्र के 7 कोस के दायरे में लुहार जाति के लोग नहीं बसते हैं. स्थानीय लोगों की माने तो इस धाम में साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं. इस तीर्थ में सिर्फ एक शिव मंदिर है और 108 शिवलिंग खुले आकाश के नीचे भगवान परशुराम के फरसे के परिधि में हैं. वैज्ञानिकों की मानें तो इस मंदिर का बेस लगभग 4 ईसा पूर्व से लेकर 6वी शताब्दी के बीच का है तो ऊपरी हिस्सा 12-13 शताब्दी की प्रतीत होती है. कुछ इतिहासकारों की माने तो यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है, जिसका जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण अलग अलग शताब्दियों में कराया गया है।

इस तीर्थ के साथ जुड़ी हुई हैं कई लोक कथाएँ
ऐसी मान्यता है कि सीता स्वयंवर में भगवान राम ने जब शिव धनुष को तोड़ा तो भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हो गए थे. वे सीता स्वयंवर में पहुँचकर भगवान राम और लक्ष्मण दोनों को भला बुरा कहा था. बात लड़ाई तक पहुँच गई थी लेकिन लड़ाई होने से पहले ही भगवान परशुराम को राम के नारायण स्वरूप का ज्ञान हो गया. उसके बाद आत्मग्लानि से भरे परशुराम स्वयंवर से वापस लौटे और इसी जगह पर अपना फरसा गाड़ दिया था और 1000 वर्ष तक कठोर तप किया था. यहाँ भगवान परशुराम के चरण-चिन्ह भी हैं।

दूसरी लोक कथा के अनुसार जब पिता जमदग्नि के आदेश देने पर भगवान परशुराम ने अपने माता का सिर काट दिया था. तब बहुत ही चतुराई से परशुराम ने पिता से वरदान में माता को जीवित करने का वरदान मांग लिया था. हालांकि उनहोंने अपने माता को जीवित कर दिया था, लेकिन उन पर मातृ-हत्या का पाप चढ़ गया था. तब इसी जगह पर भगवान परशुराम ने भगवान शिव की तपस्या कर के मातृ-हत्या के पाप से मुक्ति पाई थी।

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